वास्तु शास्त्र परिचय

वास्तु शास्त्र परिचय

वास्तु शास्त्र के १८ उपदेष्टा बताये गये हैं।

अथ श्लोकाः ...

" भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्व विश्वकर्मा मयस्तथा।
नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरंदर ||
ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च।
वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती ॥
अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः ।
संक्षेपेणोपदिष्टं यन्यनवे मत्स्यरूपिणा ।।"
(मत्स्य पुराण २५२/२-४)

भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मयदानव, नारद, नग्नजित्, विशालाक्ष (शिव), पुरन्दर (इन्द्र), ब्रह्मा ,कुमार (स्कन्द), नन्दीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- ये १८ वास्तुशास्त्र के उपदेष्टा प्रसिद्ध हैं। मत्स्य रूपधारी देव ने मनु से संक्षेप में इस शास्त्र का उपदेश दिया था। वास्तु ज्ञान के लिये हम इन्हें अपना नमस्कार अर्पित कर रहे हैं।

" भृगवे नमः । अत्रये नमः ।वसिष्ठाय नमः।विश्वकर्माय नमः ।मयाय नमः । नारदाय नमः नग्नजिते नमः । विशालाक्षाय नमः ।पुरन्दराय नमः । ब्रह्मणे नमः । कुमाराय नमः । नन्दीशाय नमः । शौनकाय नमः । गर्गाय नमः । वासुदेवाय नमः । अनिरुद्धाय नमः । शुक्राय नमः बृहस्पतये नमः मत्स्यरूपिणे भगवते नमः । मनवे नमः ।वास्तुशास्त्राय नमः ।"

निवास स्थान कहाँ हो, कैसा हो? यही वास्तु का प्रतिपाद्य है। स्त्री की रक्षा के लिये, परिवार की वृद्धि के लिये, जीविकोर्जन हेतु रहने के लिये, धनधान्य के संग्रह के लिये तथा धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न करने के लिये आश्रय की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम गृहस्थ को उत्तम देश में ऐसा स्थान ढूंढना चाहिये जहाँ वह अपने धन तथा स्त्री की भलीभाँति रक्षा कर सके। बिना आश्रय (आवास) के इन दोनों की रक्षा नहीं हो सकती। ये दोनों धन एवं स्त्री-त्रिवर्ग के हेतु हैं।

पुरुष, स्थान और घर- ये तीनों आश्रय कहलाते हैं। इन तीनों से स्त्री, धन एवं मान की रक्षा होती है। जहाँ धर्मात्मा पुरुष रहते हों, ऐसे नगर वा ग्राम में निवास करना चाहिये। कुलीन नीतिमान् बुद्धिमान् सत्यवादी विनयी धर्मात्मा दृढव्रती पुरुष आश्रय (पड़ोस) के योग्य होता है। सुस्थान में गुरुजनों की सहमति लेकर अथवा उस ग्राम आदि में बसने वाले श्रेष्ठजनों की सहमति प्राप्त कर रहने के लिये अविवादित स्थल में घर बनाना चाहिये। कहाँ घर नहीं बनाना चाहिये ? नगर के द्वार, चौक, यज्ञशाला, शिल्पियों के रहने के स्थान, जुआ खेलने के स्थान, मांस मद्यादि बेचने के स्थान, पाखण्डियों एवं राजा के नौकरों के रहने के स्थान, देवमन्दिर के मार्ग, राजमार्ग, राजप्रासाद, राजसचिवालय- इन स्थानों से दूर रहने के लिये अपना घर बनाना चाहिये। स्वच्छ रमणीय सुमार्ग युक्त सज्जनों से आवृत तथा दुष्टों के निवास से दूर ऐसे स्थान में गृह का निर्माण करना चाहिये।

【नेष्ट स्थान पर घर बनाने का फल क्या होता है ?】

देवालय कार्यालय मदिरालय वेश्यालय बाजार राजपथ के समीप घर बना कर रहने से दुःख शोक भय उद्वेग अशान्ति होती है।

घर के समीप पूर्व में विवर (गड्ढा), दक्षिण में मठ-मन्दिर, पश्चिम में जलाशय तथा उत्तर में खाई हो तो शत्रु से भय होता है। पड़ोस में मूर्त का घर हो तो पुत्रनाश मन्दिर हो तो अशान्ति, पोली भूमि हो तो विपत्ति, कुआँ हो तो पिपासा, चौराहा हो तो अपयश, चैत्य वृक्ष हो तो भय होता है।

【 घर के समीप वृक्षों के होने का शुभाशुभ फल क्या है ?】

घर की पूर्व दिशा में बरगद का वृक्ष सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है। दक्षिण में गूलर और पश्चिम में पीपल का पेड़ शुभ कारक है। उत्तर में पाकड़ का पेड़ मंगलप्रद होता है। इस से विपरीत दिशा में रहने पर ये वृक्ष विपरीत फल देते हैं।

अथ श्लोकः ...

"भवनस्य वट पूर्वे दिग्भागे सर्वकामिकः ।
उदुम्बरस्तथा याम्ये वारुण्यां पिप्पलः शुभः ।
प्लक्षश्चोत्तरतो धन्यो विपरीतास्त्वसिद्धये ।।"
(मत्यपुराण २५५ / २०,२१)

घर के समीप काँटे वाले वृक्ष शत्रु से भय देते हैं, दूध वाले वृक्ष धन का नाश करते हैं, फलवाले वृक्ष सन्तान सुख नष्ट करते हैं। इनकी लकड़ी भी घर में नहीं लगानी चाहिये।

अथ श्लोकः ....

" आसन्नाः कण्टाकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय ।
फलिनः प्रजाक्षय करा दारुण्यपि वर्जयेदेषाम् ॥"
(बृहत्संहिता ५३/८६)

प्राकृतिक ऊर्जा का प्रवाह ईशान से नैर्ऋत्य की ओर होता है। ईशान में किसी भी वृक्ष का होना ऊर्जा अवरोधक है। इससे घर अशक्त एवं निष्माण सा बना रहता है। आग्नेय में कटु वृक्ष (निम्ब), वायव्य में कषाय वृक्ष (आमलक) तथा नैर्भृत्य में अम्लवृक्ष (आम्र ) प्रशस्त है।

घर के भीतर ब्रह्मास्थान में लगाई गई तुलसी सबके लिये कल्याणप्रद धन-पुत्र प्रदान करने वाली, पुण्यदायिनी तथा हरिभक्ति देने वाली होती है। प्रातः काल तुलसी का दर्शन करने से सुवर्णदान का फल प्राप्त होता है। मकान के पूर्व एवं दक्षिण पार्श्व में पुष्पोद्यान शुभ होता है। ईशान कोण में भूतल में (पर) जलाशय प्रसादप्रद है। इससे पुष्पोद्यान की सिंचाई करना चाहिये।

【♂♂गृहनिर्माण में किस प्रकार के काष्ठ का प्रयोग करना चाहिये ?】

पंचक एवं भद्रा का त्याग कर शुभ समय में मन में उत्साह रख कर जंगल में जाकर काष्ठ के लिये चयनित वृक्ष को बलिपूजा कर महण करना चहिये। काटने पर पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर गिरने वाले वृक्ष का काष्ठ गृह निर्माण में मंगलकारी होता है। दक्षिण की ओर गिरा हुआ अशुभ होता है। दूध वाले वृक्षों का काष्ठ घर में लगाना चाहिये। जो वृक्ष पक्षियों द्वारा अधिष्ठित हो, वायु द्वारा पीडित (टूटा हो, अग्नि से जला हो, हाथी से तोड़ा हुआ हो, आकाशीय विद्युत् से जला हो, जिसका आधा भाग सूख गया हो वा टूट कर सूख गया हो, चैत्यगृह वा देवालय से उत्पन्न हो, नदी के संगम पर जमा हो, श्मशान भूमि में खड़ा हो, कूप के पास का हो, घर से सटा हो, सरोवर आदि सार्वजनिक स्थान पर लगा हो, ऐसे वृक्षों को विपुल सम्पत्ति की इच्छा वाला व्यक्ति सर्वथा त्याग दे-उपयोग में न लाये। इसी प्रकार कांटों से युक्त वृक्ष, कदम्ब, निम्ब, बहेड़ा, डेरा, आम भी गृहकर्म में छोड़ देना चाहिये। आसना (चौड़), अशोक, महुवा, सर्ज (सागौन), शाल (साख) के वृक्षकाष्ठ मंगलप्रद हैं। चन्दन, कटहल, देवदारु, हरिद्रव (चिनार) के काष्ठ धनप्रद हैं। एक दो वा तीन प्रकार के काष्ठों से बनाया गया भवन शुभ होता है। अनेक प्रकार के काष्ठों से बनाया गया भवन अनेकों भय देने वाला होता है। धनदायक शीशम, श्रीपर्णी तथा तिन्दुकी के काष्ठ को अकेले ही लगाना चाहिये। क्योंकि अन्य किसी काष्ठ के साथ युक्त कर देने से ये कभी मंगलकारी नहीं होते। इसी प्रकार धव, कटहल, चीड़, अर्जुन तथा पद्म वृक्ष भी अन्य काष्ठों के साथ युक्त करने पर मंगलप्रद नहीं होते। वार्जित काष्ठ भय, शोक, कलह, अपयश, क्षति एवं अशान्ति देते हैं। वज्रहस्तवृक्ष (कण्टकाकीर्ण पेड़) तथा भूधर (पत्थर) का प्रयोग भवन निर्माण में करने से स्त्री-पुत्र तथा धन का नाश होता है। ऐसा कमलोद्भव ब्रह्मा का कथन है।

अथ श्लोकः ...

" वृक्षश्च वज्रहस्तश्च भूधरो वर्जयेद् बुधः ।
पुत्रदारधनं हन्यादित्याह कमलोदभवः ।।"
( ब्रह्मावैवर्त पुराण १०३ / ७२)

वज्रहस्तवृक्ष के हैं, जिनमें फूल हों, दूध हों, काटे हों। जिनमें न तो फूल हो, न फल, न दूध हो, न कांटे हों, वे ही वास्तु में प्रयोज्य हैं।

भगवान् कृष्ण के लिये विश्वकर्मा ने बिना काष्ठ के प्रयोग के ही केवल पत्थरों से एक रम्य आवास बनाया था। इसका ध्वंसावशेष अब भी द्वारका के समुद्र में द्रष्टव्य है।

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